Supreme Court Decision: हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने भारत में महिलाओं के अधिकारों को लेकर एक अहम दिशा दी है। यह फैसला खासतौर पर उन विवाहित महिलाओं के लिए राहत लेकर आया है, जो पति के साथ किसी किराए के मकान या संयुक्त परिवार में रहती हैं और ससुराल पक्ष की तरफ से मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना झेलती हैं।
इस केस में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि विवाह के बाद पत्नी का अधिकार केवल “पति की संपत्ति” तक सीमित नहीं है, बल्कि वह किराए के मकान या ससुराल के किसी भी हिस्से में भी ‘मातृत्व घर’ (matrimonial home) के रूप में रहने का हक रखती है।
मामला क्या था?
मूल मामला दिल्ली की एक महिला से जुड़ा था जो अपने पति के साथ एक किराए के मकान में रहती थी। बाद में आपसी विवाद और घरेलू हिंसा की शिकायतों के चलते वह महिला अपने माता-पिता के
घर लौट गई। कुछ समय बाद उसने फिर से उसी मकान में रहने की कोशिश की, लेकिन मकान मालिक और पति ने उसे रोक दिया। इसके बाद महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया और “घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005” के तहत निवास के अधिकार की मांग की।निचली अदालतों का रुख
मामला पहले मजिस्ट्रेट के पास गया जहां महिला की याचिका खारिज कर दी गई। फिर जिला एवं सत्र न्यायालय ने भी फैसला महिला के खिलाफ ही सुनाया। इन फैसलों के पीछे दलील यह थी कि जिस मकान में महिला रहना चाहती है वह ना तो पति की संपत्ति है और ना ही उस पर उसका कोई कानूनी अधिकार है।
सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप और ऐतिहासिक टिप्पणी
जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो वहां से न्याय की एक नई रोशनी दिखाई दी। अदालत ने स्पष्ट किया कि “विवाहित महिला का अपने पति के साथ निवास करना ही उसका मौलिक

न्यायमूर्ति बी वी नागरत्ना और न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया की पीठ ने यह कहा कि:
“घर भले ही किराए का हो या पति की संपत्ति न हो, फिर भी यदि वह वैवाहिक जीवन के दौरान उनके निवास का स्थान रहा है, तो पत्नी को वहां से बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक कि वैकल्पिक और सुरक्षित निवास की व्यवस्था न की जाए।”
घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 की व्याख्या
घरेलू हिंसा अधिनियम, 2005 महिलाओं को शारीरिक, मानसिक, आर्थिक और यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया था। इस अधिनियम की धारा 17 और 19 यह स्पष्ट रूप से कहती है कि:
- हर महिला को “मातृत्व घर” में निवास का अधिकार है
- वह तब तक वहां रह सकती है जब तक कि उसके लिए वैकल्पिक सुरक्षित निवास की व्यवस्था न हो
- यदि महिला को जबरन घर से निकाला गया है, तो अदालत उसे पुनः वहां रहने का आदेश दे सकती है
सामाजिक और कानूनी असर
यह फैसला न केवल एक महिला की व्यक्तिगत लड़ाई को मान्यता देता है, बल्कि उन हजारों महिलाओं को नई उम्मीद देता है जो शादी के बाद ससुराल या किराए के घर में रहती हैं और पति या ससुराल वालों द्वारा निकाले जाने की धमकी झेलती हैं।
यह भी एक बड़ा संदेश है कि कानून केवल मालिकाना हक पर आधारित नहीं है, बल्कि वह भावनात्मक, सामाजिक और मानवीय हकों को भी मान्यता देता है।
न्यायिक संतुलन और पुरुष पक्ष
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यह अधिकार बिना शर्त नहीं है। यदि पुरुष पक्ष यह सिद्ध कर सके कि महिला इस अधिकार का दुरुपयोग कर रही है या खुद हिंसा कर रही है,
तो अदालतें मामले के तथ्यों के अनुसार संतुलित दृष्टिकोण अपनाएंगी। यानी कानून किसी एक पक्ष का अंध समर्थन नहीं करता, बल्कि न्यायपूर्ण निर्णय का प्रयास करता है।निष्कर्ष
भारत में विवाह केवल एक सामाजिक संस्था नहीं बल्कि दो व्यक्तियों के अधिकारों, जिम्मेदारियों और सुरक्षा का कानूनी समझौता भी है। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय भारतीय महिलाओं के लिए न केवल कानूनी सुरक्षा का प्रतीक है, बल्कि यह बताता है कि देश का न्याय तंत्र महिलाओं की गरिमा और सम्मान को लेकर गंभीर है।
हर महिला को यह जानना जरूरी है कि उसका घर वही नहीं होता जो उसके नाम पर हो, बल्कि वो हर जगह उसका घर होता है जहाँ वह सम्मान और सुरक्षा के साथ रह रही होती है।
अस्वीकरण
यह लेख हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्णय और घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम 2005 से संबंधित सामान्य जानकारी के उद्देश्य से तैयार किया गया है। इसमें दी गई
जानकारी कानूनी सलाह नहीं है। यदि आप इस प्रकार की किसी व्यक्तिगत स्थिति का सामना कर रहे हैं तो कृपया किसी योग्य वकील या अधिकृत कानूनी सलाहकार से संपर्क करें।